डॉ रामचंद्र शर्मा
(साहित्यकार)

साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं होता; वह समाज के हृदय की धड़कन, समय की पीड़ा और भविष्य की दिशा का सूचक भी होता है। हिंदी और पंजाबी साहित्य की महान लेखिका अमृता प्रीतम (31 अगस्त 1919 से 31 अक्टूबर 2005) ने अपने लेखन से यह साबित किया कि सच्चा साहित्यकार वही है, जो शब्दों के पीछे छिपे आँसुओं, करुणा,वेदना और प्रेम को महसूस कर सके। उनका साहित्य केवल स्त्री जीवन या प्रेम तक सीमित नहीं है, बल्कि वह मानवीय संवेदनाओं के हर कोने का जीवंत दस्तावेज है, जहां विभाजन की त्रासदी है, स्त्री की पीड़ा है, समाज की विसंगतियां हैं, प्रकृति का लोक जीवन से सामंजस्य है और प्रेम का आध्यात्मिक सौंदर्य है।
सन 1947 का भारत-पाक विभाजन केवल राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि करोड़ों लोगों की आत्मा का टुकड़ा-टुकड़ा हो जाना था। अमृता प्रीतम ने इसे नज़दीक से देखा और महसूस किया। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं’ (आज मैं वारिस शाह को पुकारती हूँ) विभाजन की पीड़ा का ऐसा चित्रण है जो आज भी दिल दहला देता है। इस कविता में उन्होंने पंजाब की धड़कन, माताओं-बहनों की चीख और टूटे हुए घरों की वेदना को स्वर दिया। यह केवल एक स्त्री कवयित्री का आर्तनाद नहीं था, बल्कि पूरे समाज का करुण गीत था। यह कविता 18वीं सदी के पंजाबी कवि वारिस शाह को संबोधित है , जिन्होंने पंजाबी रोमांस ,त्रासदी, हीर रांझा का सबसे लोकप्रिय संस्करण लिखा था। यह वारिस शाह से अपनी कब्र से उठने, पंजाब की त्रासदी को दर्ज करने और पंजाब के इतिहास में एक नया पृष्ठ खोलने की अपील करती है। उनका उपन्यास “पिंजर” भी विभाजन के दौरान स्त्री की असहायता, अपमान और संघर्ष की कहानी है। ‘पिंजर’ में पूरो नामक पात्र के माध्यम से अमृता ने दिखाया कि कैसे स्त्री का शरीर और अस्तित्व राजनीति और समाज की हिंसा व शोषण का शिकार बनता है। परंतु यही पीड़ा पाठकों के हृदय में मानवीय संवेदना जगाती है।
अमृता प्रीतम को स्त्री चेतना की प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने स्त्री को केवल रोने-बिलखने वाली या पुरुष पर आश्रित प्राणी के रूप में नहीं दिखाया, बल्कि एक सोचने-समझने वाली, संघर्षशील और विद्रोही इंसान के रूप में प्रस्तुत किया।अमृता प्रीतम ने उपन्यास में अपने अनुभवों को डाला है। उन्होंने विभाजन काल में महिला जीवन को चित्रित किया है। यह एक हिंदू लड़की, पूरो की कहानी है, जिसका अपहरण एक मुस्लिम व्यक्ति, रशीद द्वारा किया जाता है, जब पूरो राशिद के घर से भागने में सफल हो जाती है, तो उसके माता-पिता अपवित्र लड़की को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। ‘पिंजर’ को भारत के विभाजन की अवधि के दौरान स्थापित भारतीय कथा साहित्य के उत्कृष्ट कार्यों में से एक माना जाता है।
उनकी कहानियों और कविताओं में स्त्री अपने अस्तित्व की तलाश करती है। ‘कच्चा धागा’ और ‘रस्मी रिवाज’ जैसी रचनाएँ स्त्री की उसी आत्म खोज और समाज की बेड़ियों को तोड़ने के संघर्ष की कहानियाँ हैं। मानवीय संवेदना यहाँ केवल करुणा के रूप में नहीं आती, बल्कि आत्मसम्मान और स्वाभिमान की ज्वाला के रूप में प्रकट होती है।’मैं तुम्हें फिर मिलूंगी ‘मुलाकात’ जैसी कविताएं अमृता जी द्वारा संवेग और संवेदनाओं का संगम दिखती है साथ ही ‘मरुस्थल की लीला प्रकृति प्रेम व प्रकृति के साथ मानवीय आत्मीयता को भी जीवंत करती है। अमृता प्रीतम के साहित्य का सबसे जीवंत पक्ष उनका प्रेम-दर्शन है। उनके लिए प्रेम केवल आकर्षण या भावुकता नहीं है, बल्कि आत्मा की गहराइयों में उतरने वाला अनुभव है। ‘मेरी ख़ता’ कविता साक्षात उदाहरण है, उनका जीवन और उनका साहित्य दोनों इस बात के साक्षी हैं कि प्रेम, संवेदना और करुणा मानवता को बचाने का सबसे बड़ा आधार हैं। उनकी कविताओं और आत्मकथाओं में इमरोज़ और साहिर लुधियानवी जैसे पात्र केवल व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि प्रेम के वे प्रतीक हैं जो मानवीय संबंधों को आध्यात्मिक ऊंचाई देते हैं।उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ इस प्रेम-दर्शन और संवेदना की सच्चाई को स्पष्ट रूप से उजागर करती है। अमृता प्रीतम का साहित्य केवल स्त्री या प्रेम तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने समाज के उन तबकों की आवाज़ भी उठाई जिन्हें अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। गरीब, किसान, मजदूर और दलित उनकी रचनाओं में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि समाज का विकास केवल ऊँचे वर्ग की प्रगति से नहीं होगा, बल्कि तब होगा जब हर वह व्यक्ति जो हाशिए पर है, सम्मान और संवेदना के साथ जी सके।
उनकी कहानियों में खेत-खलिहान, मजदूरी, भूख और वंचना के दृश्य मानवीय करुणा जगाते हैं। बाद के वर्षों में अमृता प्रीतम के साहित्य में एक अद्भुत आध्यात्मिक संवेदना दिखाई देती है। उन्होंने जीवन और मृत्यु को, प्रेम और वियोग को, केवल व्यक्तिगत अनुभव के रूप में नहीं बल्कि सार्वभौमिक सत्य के रूप में देखा। उनकी कविताओं में यह आध्यात्मिक स्वर पाठक को केवल भारतीय समाज तक सीमित नहीं रखता, बल्कि पूरी मानवता के लिए संदेश देता है।अमृता के लिए आज़ादी का मतलब पहले था भावनात्मक आज़ादी और फिर सामाजिक आज़ादी। अपने जीवन में अपने लिए उन्होंने ये दोनों आज़ादी हासिल की। मेरे लिए अमृता प्रीतम आज की उन तमाम दोगली स्त्रीवादी नेताओं कार्यकर्ताओं से ज़्यादा बड़ी हो जाती हैं क्योंकि अमृता सिर्फ़ स्त्री आज़ादी के लिए लिखती नहीं, बोलती नहीं, बल्कि अपने जीवन में अमल भी करती हैं।
अमृता प्रीतम की भाषा सरल, मार्मिक और हृदयस्पर्शी है। वे जटिल शब्दावली के बजाय सीधे हृदय को छूने वाली शैली में लिखती हैं। अमृता प्रीतम के उपन्यासों में कई ऐसे पात्र हैं जो सामाजिक जीवन में स्त्री उत्पीड़न का असली चेहरा दिखाते हैं ‘नागमणि’की अलका, ‘कम्मी’ उर्फ ‘बंद दरवाजा’ की कम्मी,नीना उर्फ ‘घोषाला’ की नीना जैसे पात्रों के माध्यम से स्त्री जीवन के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करती है |अमृता प्रीतम जी का उपन्यास ‘उनके हस्ताक्षर ‘ स्त्री चेतना को दर्शाने वाला मिल का पत्थर साबित होता है |अमृता प्रीतम ने बारहमासे की तर्ज पर प्रिय की विरह वेदना को लोक मन से जोड़ा है। चैत, वैशाख, आषाढ़ और फिर सावन जब धरती ने अंजुरी बना कर अंबर की रहमत को पीया, सावन की ठण्ढी बयार को अंतर्मन में महसूस किया पर वह नहीं आया- ‘बदला दी दुनिया छा गई/ धरती ने बुक्कां जोड़ के अंबरदी रहमत पी लई/ पर तूं नहीं आया।’ चांद, सूरज, आकाश, तारे, धरती रसोई के उपकरण- सब अमृता के नाजुक खयालों को जामा पहनाने के लिए होड़ में रहते थे। ऐसे टटके उपमान सुनने वाले की संवेदनाओं को तीखा करते जाते हैं। फिर अमृता प्रीतम की लय से भरपूर वाणी कविता की भीतरी आत्मा की हिलोरें देने वाली संवाहक थी।
उनकी कविताएँ मानो करुणा के आँसुओं से भीगी हों और उनकी कहानियाँ मानो समाज की पीड़ा का आईना हों। अमृता प्रीतम एक ऐसा व्यक्तित्व जिन्हें जितना पढ़ा और समझा जाए कम ही है। जब भी एक मानवीय आज़ाद रूह, एक नारीवाद और एक सशक्त महिला की बात होती है तो अमृता प्रीतम का नाम सबसे पहले आता है। अमृता, जिन्होंने अपनी कलम से पितृसत्तात्मक व्यवस्था, शोषण और समाज में मौजूद रूढ़िवाद पर गहरा प्रहार किया। एक ऐसी औरत जिसने बनी-बनाई सामाजिक मान्यताओं और पैमानों को तोड़ते हुए अपने ढंग से अपना जीवन जिया और इसके लिए दूसरी औरतों को प्रेरित भी किया। यही कारण है कि उनके साहित्य को पाठक पढ़ते नहीं, बल्कि जीते आज जब दुनिया युद्ध, हिंसा, असमानता और स्त्री-उत्पीड़न जैसी समस्याओं से जूझ रही है, तब अमृता प्रीतम का साहित्य हमें संवेदना की ओर लौटने का आह्वान करता है।
उनकी कविताएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि इंसान की सबसे बड़ी ताकत उसकी संवेदनशीलता है। यदि यह संवेदनशीलता खो गई, तो विज्ञान, प्रगति और राजनीति सब व्यर्थ हो जाएँगे |अमृता प्रीतम का साहित्य मानवीय संवेदना का जीवंत दस्तावेज है। विभाजन की त्रासदी हो या स्त्री का संघर्ष, प्रेम की गहराई हो या समाज के वंचित वर्ग की पुकार उन्होंने हर विषय को करुणा, संवेदना और मानवता की दृष्टि से प्रस्तुत किया।आज जब साहित्य और समाज दोनों को मानवीय दृष्टि की सबसे अधिक आवश्यकता है, तब अमृता प्रीतम की रचनाएँ हमें यह सिखाती हैं कि साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य मानवता की रक्षा करना और संवेदनाओं को जागृत रखना है।