दशहरा आ गया है और बेचारा रावण फिर से टेंशन में है।लेकिन यह टेंशन जलने का नहीं है। जलना तो उसका सरकारी ठेका है। हर साल वही स्क्रिप्ट, वही मंच, वही पटाखे। जनता आती है, जयकारे लगाती है, फोटो खिंचवाती है और रावण धड़ाम से गिरता है।
रावण अब जलने का आदी हो चुका है—इतना कि अगर एक साल गलती से उसे न जलाया जाए तो शायद खुद याचिका दायर कर दे—“मान्यवर, यह परंपरा का उल्लंघन है, कृपया मुझे जलाया जाए।”
असल टेंशन यह है कि इस बार मौसम विभाग ने दशहरे में खलल डाल दिया है। पहले यह विभाग नेताओं की तरह था—“बारिश होगी” कहकर जनता को बेवकूफ बना देता था और सूरज निकल आता था। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। जब वह रेड और ऑरेंज अलर्ट देता है तो सचमुच आसमान फट पड़ता है।
बस यही डर रावण को सता रहा है। अगर दशहरे वाले दिन बारिश हो गई तो आतिशबाज़ी गीली, तीर कमान भुस्की और पटाखे फुस्स! फिर जनता कहेगी—“भाई, जलाने का झंझट क्यों, सीधे डुबो देते हैं।”
सोचिए, दृश्य कैसा होगा—एक तरफ गड्ढों में भरे पानी का समुद्र, दूसरी तरफ रावण खड़ा, और लोग कह रहे हैं—“आज रावण दहन नहीं, रावण विसर्जन!”
वैसे भी यह देश हैरान करने वाला है।
“चुल्लू भर पानी में डूब मरने” की कहावत बरसों से चली आ रही है, लेकिन जिन्हें डूबना चाहिए—वो कभी डूबे नहीं।
घोटालों के आरोपी तैराकी के चैम्पियन निकले।
बेरोज़गार युवा डूबे, पर नौकरी देने वाले नेता नहीं।
किसान कर्ज़ में डूबे, पर बैंक लुटेरों की नौकाएं तैरती रहीं।मकान गिरा, पुल बह गए, पर ठेकेदार बचते रहे।अब बेचारा रावण सोच रहा है—“सदियों से जनता मुझे ही जलाती रही। मेरी गलती तो त्रेता युग में हो गई थी। पर इनके गुनाहों की फेहरिस्त आज भी बनती जा रही है, फिर भी दंड हर साल मुझे ही क्यों? कहीं अगली बार जलाने के बजाय मुझे इन पापियों की जगह डुबोकर बलि का बकरा न बना दें!”
तो इस बार दशहरे पर रावण की सबसे बड़ी चिंता यही है—
जलने का नहीं, बल्कि डूबने का डर।
और हम सब जानते हैं—इस देश में डूबने का अधिकार सिर्फ ईमानदार और आम आदमी को है, बाकी सब तैरते ही रहते हैं।
