विनय झैलावत

(पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं वरिष्ठ अधिवक्ता) का कॉलम

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि एक बार जांच पूरी हो जाने, आरोप पत्र दाखिल हो जाने और मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिए जाने के बाद ऐसी आपत्तियों का इस्तेमाल कार्यवाही को अमान्य करने के लिए नहीं किया जा सकता। इसका अपवाद वहां होगा जहां संज्ञान लेने से पहले ही रद्द करने की याचिका लंबित हो। यह जानना दिलचस्प है कि आखिर क्यों सीबीआई को राज्य से अन्वेषण के लिए स्वीकृति लेनी पड़ती है? यह भी जानना चाहिए कि अगर सीबीआई किसी पर कार्यवाही करती है तो उनके क्या अधिकार होते हैं?
सीबीआई अर्थात केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो भारत की एक प्रमुख अन्वेषण एजेंसी है तथा यह केंद्रीय सतर्कता आयोग और लोकपाल को सहायता प्रदान करती है। यह संस्था भारत सरकार के कार्मिक, पेंशन तथा लोक शिकायत मंत्रालय के कार्मिक विभाग जो प्रधानमंत्री कार्यालय के अंतर्गत आता है, के अधीक्षण में कार्य करती है। लेकिन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराधों के अन्वेषण के मामले में इसका अधीक्षण केंद्रीय सतर्कता आयोग के पास है। सीबीआई भारत की नोडल पुलिस एजेंसी भी है जो इंटरपोल की ओर से इसके सदस्य देशों में अन्वेषण संबंधी समन्वय करती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि इसकी अपराध सिद्धि दर 65 से 70 प्रतिशत है। अतः इसकी तुलना विश्व की सर्वश्रेष्ठ अन्वेषण एजेंसियों से की जा सकती है।
सीबीआई की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वर्ष 1941 में ब्रिटिश भारत के युद्ध विभाग में एक विशेष पुलिस स्थापना का गठन किया गया था ताकि युद्ध में संबंधित खरीद मामलों में रिश्वत और भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की जा सके। दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 को लागू करके भारत सरकार के विभिन्न विभागों/संभागों में भ्रष्टाचार के आरोपों के अन्वेषण के लिए एक एजेंसी के रूप में इसकी औपचारिक शुरुआत की गई। सीबीआई एक वैधानिक निकाय नहीं है, लेकिन इसे दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 द्वारा अन्वेषण करने की शक्ति प्राप्त है। सीबीआई की स्थापना की सिफारिश भ्रष्टाचार रोकथाम पर संथानम समिति (1962-1964) द्वारा की गई थी। वर्ष 1963 में भारत सरकार द्वारा इस एजेंसी का गठन भारत की रक्षा से संबंधित गंभीर अपराधों, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार, गंभीर धोखाधड़ी, ठगी व गबन और सामाजिक अपराधों (विशेष रूप से आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी, कालाबाजारी और मुनाफाखोरी) के अन्वेषण के लिए किया गया। कुछ समय बाद सीबीआई को चर्चित हत्याओं, अपहरण, विमान अपहरण, चरमपंथियों द्वारा किये गए अपराध जैसे अन्य अपराधों की जांच का उत्तरदायित्व भी सौंपा जाने लगा।
केंद्र सरकार किसी राज्य में अपराध की जांच के लिए सीबीआई को अधिकृत कर सकती है। लेकिन, ऐसा केवल संबंधित राज्य सरकार की सहमति से किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय सीबीआई को राज्य की सहमति के बिना भी देश में कहीं भी किसी अपराध की जांच का आदेश दे सकते हैं। धारा 6 दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 राज्य एवं केंद्र सरकारों ने उनके क्षेत्र में कार्य करने के लिए सहमति प्राप्त करने की बात करती है। सीबीआई एक विशेष पुलिस स्थापना इकाई है। अतः उसे किसी भी क्षेत्र में कार्य करने के लिए सरकार की सहमति की आवश्यकता होती है।
यह सहमति दो प्रकार की होती है। एक केस विशिष्ट सहमति और दूसरी, सामान्य सहमति। यद्यपि सीबीआई का अधिकार क्षेत्र केवल केंद्र सरकार के विभागों और कर्मचारियों तक सीमित होता है। राज्य सरकार की सहमति मिलने के बाद यह एजेंसी राज्य सरकार के कर्मचारियों या हिंसक अपराध से जुड़े मामलों की जांच भी कर सकती है।
दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम की धारा 6 के मुताबिक, दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का कोई भी सदस्य किसी भी राज्य सरकार की सहमति के बिना उस राज्य में अपनी शक्तियों और अधिकार क्षेत्र का उपयोग नहीं करेगा। जब एक सामान्य सहमति वापस ले ली जाती है, तो सीबीआई को संबंधित राज्य सरकार से जांच के लिये केस के आधार पर प्रत्येक बार सहमति लेने की आवश्यकता होती है। यह सीबीआई द्वारा निर्बाध जांच में बाधा डालती है। ‘सामान्य सहमति’ सामान्यतः सीबीआई को संबंधित राज्य में केंद्र सरकार के कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने में मदद के लिये दी जाती है, ताकि सीबीआई की जांच सुचारू रूप से चल सके और उसे बार-बार राज्य सरकार के समक्ष आवेदन न करना पड़े। लगभग सभी राज्यों द्वारा ऐसी सहमति दी गई है। यदि राज्यों द्वारा सहमति नहीं दी गई तो इसे सीबीआई को प्रत्येक मामले में जांच करने से पहले राज्य सरकार से सहमति लेना आवश्यक होता है।
दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत सीबीआई द्वारा राज्य की सहमति न लेने के संबंध में आपत्तियों के बारे में अदालत ने कहा कि, दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत सहमति के अभाव का मामला प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने के तुरंत बाद उठाया जाना चाहिए। एक बार जांच पूरी हो जाने, आरोप पत्र दायर हो जाने और सक्षम न्यायालय द्वारा संज्ञान ले लिए जाने के बाद आरोप पत्र पर संज्ञान लेने वाले आदेश की वैधता को कम करने के लिए ऐसी कोई दलील नहीं दी जा सकती। यह आधार हो सकता है कि इससे न्याय का गंभीर हनन होता है। जहां प्रथम सूचना रिपोर्ट रद्द करने की कार्यवाही शुरू हो गई हो और रद्द करने की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दायर कर दिया गया हो। ऐसे मामले में पीड़ित व्यक्ति के पास यह तर्क देने का कुछ औचित्य हो सकता है कि रद्द करने की कार्यवाही लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दायर करने से उसके अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इन्दौर पीठ का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें अभियुक्त नंबर 1 और 3 के विरूद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 420 सहपठित 120-बी और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) सहपठित 13(1)(डी) के तहत दर्ज आपराधिक मामला रदद् कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण को तर्कहीन बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि ऐसी स्थिति होती कि निरस्तीकरण की कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दाखिल किया गया होता तो अभियुक्त यह दलील देता कि निरस्तीकरण की कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान आरोप पत्र दाखिल करने से उसके अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। वह आरोप पत्र दाखिल होने के बाद भी सहमति न होने का तर्क दे सकता है। वर्तमान मामले में ऐसी कोई स्थिति नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी की निरस्तीकरण याचिका को स्वीकार करना उच्च न्यायालय की गलती थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने तथ्यात्मक विवादों का समय से पहले ही निपटारा किया था, जिन्हें साक्ष्यों के माध्यम से ट्रायल कोर्ट को जांचने के लिए छोड़ देना चाहिए था। न्यायालय ने कहा कि आरोपों के गुण-दोष पर उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निष्कर्षों को देखते हुए हमें ऐसा लगता है कि उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट की भूमिका निभाते हुए अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया। कुछ विवादास्पद मुद्दे हैं, जिन्हें ट्रायल कोर्ट के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए था। सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक मामले को ट्रायल कोर्ट के समक्ष पुनः स्थापित कर दिया गया। अभियुक्तों को निर्देश दिया गया कि नियत तिथि को ट्रायल कोर्ट के समक्ष उपस्थित हो तथा ट्रायल कोर्ट की संतुष्टि के लिए जमानत बांड प्रस्तुत करे।