(पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं वरिष्ठ अधिवक्ता विनय झैलावत का कॉलम )
हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने समाज में व्याप्त भेदभाव और छुआछूत पर स्वप्रेरणा से महत्वपूर्ण आदेश दिया है। यह फैसला सामाजिक सरोकार से प्रेरित माना जाएगा। समाज में इस आधुनिक युग में भी व्याप्त आपसी ताने-बाने को कमजोर करने वाली प्रवृत्ति की ओर भी यह फैसला इंगित करता है। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन एवं न्यायमूर्ति प्रदीप मित्तल की खंडपीठ द्वारा दिए गए इस आदेश को ऐतिहासिक माना जाना चाहिए। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन अपनी नई सोच के लिए मशहूर है। वे अभी इस कारण भी चर्चा में आए कि उनका स्थानांतरण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ किया गया था। बाद में भारत सरकार के अनुरोध पर उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय भेजा गया। यह पहली बार हुआ है कि भारत सरकार के अनुरोध पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने स्थानांतरण के आदेश में परिवर्तन किया और उसे अपने आदेश/कार्यवाही में अंकित भी किया।
यह मामला एक ओबीसी युवक को दूसरे के पैर धोने के लिए मजबूर करने का मामला है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने आरोपियों को एनएसए के तहत हिरासत में लेने पर सवाल उठाए। न्यायालय ने राज्य सरकार से पूछा कि उन्होंने ओबीसी समुदाय के एक युवक को दूसरे के पैर धोने के लिए मजबूर करने के आरोपी व्यक्तियों को न्यायालय के उस आदेश जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत हिरासत भी शामिल है, उसके आधिकारिक तौर पर अपलोड होने से पहले ही हिरासत में क्यों लिया? न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति प्रदीप मित्तल की बेंच ने मामले में सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि जातीय हिंसा और भेदभाव की घटनाएं बार-बार सामने आ रही है। यही वह राज्य है, जहां एक सामान्य वर्ग के व्यक्ति ने एक आदिवासी पर मूत्र त्याग किया था और तब मुख्यमंत्री ने उस पीड़ित के पैर धोकर माफी मांगी थी। समाज में हर जाति अपनी पहचान को अति उत्साह से प्रदर्शित कर रही है। इससे हिंदू समाज का आपसी ताना-बाना कमजोर हो रहा है। यदि यह प्रवृत्ति इसी तरह जारी रही, तो आने वाले डेढ़ सौ वर्षों में ‘हिन्दू’ नाम की कोई एकता नहीं बचेगी। उक्त खंडपीठ ने आरोपियों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया। हालांकि, स्वतः संज्ञान मामला 15 अक्टूबर को सुबह 11ः39 बजे एक रिट याचिका के रूप में दर्ज किया गया।
15 अक्टूबर को न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल और न्यायमूर्ति अवनींद्र कुमार सिंह की एक अन्य खंडपीठ ने रिट याचिका पर विचार किया। इस खंडपीठ ने सवाल उठाया कि पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ 14 अक्टूबर को ही कार्रवाई क्यों की, जबकि मामला औपचारिक रूप से 15 अक्टूबर को ही दर्ज किया गया। दमोह के जिला मजिस्ट्रेट ने 14 अक्टूबर को ही पांच आरोपियों को रासुका के तहत हिरासत में लिया था। खंडपीठ ने कहा कि इससे यह स्पष्ट है कि दमोह की पुलिस अधीक्षक ने 15 अक्टूबर को 11ः39ः26 बजे दर्ज किया। रिट याचिका के रजिस्ट्रेशन की प्रतीक्षा किए बिना, हस्ताक्षरित प्रति के रूप में उन्हें आधिकारिक रूप से सूचित किए बिना, मौखिक आदेश पर संज्ञान ले लिया। सुनवाई के दौरान, सीनियर एडवोकेट नमन नागरथ ने तर्क दिया कि गुरुवार को खंडपीठ द्वारा लिया गया स्वतः संज्ञान अधूरा है और इसलिए उचित नहीं है।
उन्होंने न्यायालय के समक्ष विचारार्थ दो मुद्दे भी रखे। (एक) समन्वय पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए अपनी स्वप्रेरणा शक्ति का उचित ढंग से प्रयोग किया? (दो) क्या समन्वय पीठ द्वारा पुलिस अधिकारियों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के प्रावधानों को लागू करने का निर्देश देना उचित है? जबकि, उसने स्वयं यह भी कहा कि इस प्रकार की कार्रवाई आमतौर पर कार्यपालिका के विवेकाधिकार के अंतर्गत आती है। यह देखते हुए कि रिट याचिका 15 अक्टूबर, सुबह 11ः39 बजे दर्ज की गई, नागरथ ने दलील दी कि पुलिस ने मौखिक निर्देश पर उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर कोई औपचारिक आदेश अपलोड होने से पहले ही जल्दबाजी में कार्रवाई की। नागरथ के अनुसार, पुलिस अधिकारियों ने 14 अक्टूबर को आधिकारिक माध्यम से आदेश दिए बिना अन्नू पांडे सहित चार व्यक्तियों को हिरासत में ले लिया। इसके अलावा, जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक ने भी औपचारिक आदेश की प्रतीक्षा किए बिना 14 अक्टूबर को रासुका के तहत हिरासत के आदेश जारी कर दिए। कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए सीनियर एडवोकेट नागरथ द्वारा दायर अंतरिम आवेदन पर गौर करते हुए न्यायालय ने पाया कि उन्होंने अपने रुख से पलटी मार ली। उन्होंने पहले कहा था कि चारों आरोपियों को हिरासत में लिया गया, लेकिन बाद में पलटी मारते हुए कहा कि उन पर रासुका नहीं लगाया गया।
अतिरिक्त महाविधवक्ता जान्हवी पंडित ने दावा किया कि पुलिस अधीक्षक ने सुनवाई के दौरान न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार कार्रवाई की। यह भी कहा गया कि न्यायालय के रीडर ने डिप्टी एडवोकेट जनरल अभिजीत अवस्थी को बुलाकर आदेश की व्हाट्सएप कॉपी सौंपी थी। पंडित ने यह भी बताया कि 14 अक्टूबर के आदेश के अनुपालन में 5 लोगों के खिलाफ रासुका की धारा 3(2) का प्रावधान लागू किया गया। उच्च न्यायालय ने राज्य की रिपोर्ट को रिकॉर्ड में लिया और कहा कि रासुका की धारा 3(2) के अलावा, बीएनएस की धारा 196(2), 352, 351(2) भी जोड़ी गईं। न्यायालय ने कहा कि पुलिस अधीक्षक ने औपचारिक आदेश की प्रतीक्षा किए बिना, मौखिक आदेशों के आधार पर संज्ञान ले लिया।
इसलिए न्यायालय ने राज्य सरकार को कुछ मुद्दों पर एक रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने (एक) ग्राम पंचायत के सरपंच और सचिव के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई, जिन्होंने कथित तौर पर तथाकथित आरोपी कुशवाहा को फटकार लगाने के लिए एक बैठक बुलाई? (दो) पुलिस अधीक्षक, दमोह के समक्ष क्या सामग्री प्रस्तुत की गई और उक्त सामग्री पर उनका क्या विचार था, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के प्रावधानों को लागू किया जा सके? (तीन) क्या दिनांक 14 अक्टूबर के आदेश की प्रमाणित प्रति प्राप्त किए बिना और रिट याचिका के पंजीकरण के बिना पुलिस अधीक्षक ने 14 अक्टूबर का आदेश पारित करने के लिए न्यायालय ने यह भी संज्ञान लिया कि कलेक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट ने 14 अक्टूबर को ही निरोध आदेश पारित किया। इसलिए न्यायालय ने जिला मजिस्ट्रेट और संबंधित पुलिस अधीक्षक को एक हलफनामा दाखिल करने का भी निर्देश दिया। न्यायालय ने यूट्यूब न्युज चैनल सत्य हिंदी-एमपी, पंजाब केसरी और लल्लनटॉप से भी उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर डाली गई सामग्री की सत्यता के बारे में जवाब मांगे। इस तरह की घटनाओ पर कई कड़े कानून है। पिछड़े वर्ग में अनुसूचित वर्ग एवं जातियों के लिए एक अधिनियम केवल इन कार्यो को रोकने के लिए है। इसे जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 का नाम दिया गया है।
