क्या आप जानते हैं की फिल्मी दुनिया के मशहूर खलनायक “प्राण” साहब का इंदौर से रिश्ता क्या है? इंदौर ही वो जगह है जहां से प्राण मायानगरी बंबई गए थे। और अंतिम दिनों तक वहीं रहे।
दरअसल प्राण साहब फिल्मों में आना ही नहीं चाहते थे वह एक मशहूर फोटोग्राफर बनना चाहते थे प्राण साहब का जन्म दिल्ली में हुआ था उनका नाम था प्राण किशन सिकंद ।उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे इस कारण प्राण साहब की पढ़ाई हिंदुस्तान में कई जगह हुई । दसवीं की पढ़ाई करते वक्त उनके हाथों में एक कैमरा आ गया और उन्होंने उससे एक फोटो खींची। उसके बाद उन्होंने फोटोग्राफर बनने की सोच ली । बाद में दिल्ली में दास एंड कंपनी में फोटोग्राफी सीखने लगे ।इसके बाद कंपनी ने उन्हें अपने नए स्टूडियो शिमला में भेज दिया। वहां काम सीखते सीखते वहा उन्हें राम लीला की फोटोग्राफी के लिए भेजा। एक दिन सीता का रोल करने वाला कलाकार नहीं आया था। फोटोग्राफर प्राण के मन में क्या आया और वे सीता का रोल करने को तैयार हो गए और उन्होंने यह रोल बखूबी निभाया इसमें राम बने थे मदन पुरी।
इस बीच कंपनी ने जब अपना नया स्टूडियो लाहौर में खोला तो प्राण साहब को उन्हें लाहौर भेज दिया। प्राण साहब लाहौर में दिनभर अपनी कंपनी में काम करते और रात में पान खाने एक दुकान पर जाया करते थे। ऐसे ही एक दिन पान की दुकान पर पान चबाते हुए सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ा रहे थे तभी उन पर प्रसिद्ध निर्माता वली मोहम्मद वली की निगाह पड़ी( जिन्होंने बाद में बंबई में फेमस स्टूडियो बनाया।) उन्होंने उनके पास आकर पूछा फिल्मों में काम करोगे और अपना कार्ड देते हुए कहा कि कल सुबह स्टूडियो आ जाना। प्राण साहब को यह एक मजाक सा लगा और वे सुबह स्टूडियो नहीं पहुंचे बल्कि वह अपनी कंपनी में जाकर काम करने लगे ।इस बात को प्राण भी भूल चुके थे ।लेकिन वली मोहम्मद नहीं भूले थे। उन्हें प्राण जैसे अदाकार की तलाश थी ।एक दिन जब प्राण फिल्म देखने गए थे तो वहां उनका सामना वली मोहम्मद वली से हो गया। वली मोहम्मद गुस्सा हुए बोले तुम आये क्यों नहीं।उन्होंने प्राण से कहा मुझे अपना एड्रेस दो ।मेरी कार तुम्हे सुबह पिकअप कर लेगी। हुआ भी वैसा ही। सुबह वली मोहम्मद वली की कार प्राण को लेने उनके घर आ गई और प्राण साहब स्टूडियो में। 1940 में प्राण को पहली फिल्म मिलीं यमला जट। उनकी हिरोइन थी नूरजहां।
उसके बाद तो प्राण के पास फिल्में ही फिल्में आ गई। 1945 में प्राण साहब की शादी शुक्ला अहलूवालिया से परिवार ने कर दी।
1947 तक वे 22 फिल्मों में काम कर चुके थे। और लाहौर में प्रसिद्ध भी।
1947 में देश के विभाजन को लेकर बहुत तनाव बना हुआ था । उन दिनों प्राण साहब लाहौर में रहा करते थे वह लाहौर फिल्म इंडस्ट्री के एक स्थापित और जाने-माने कलाकार थे। पार्टीशन की वजह से जो माहौल बिगड़ रहा था उसे देखते हुए प्राण साहब ने अपनी पत्नी शुक्ला और बेटे को लाहौर से इंदौर भेज दिया था। इंदौर में प्राण साहब की साली रहा करती थी, अगर कहीं यह कुछ हुआ कि यहां से भागना पड़ा तो कहीं तो ठिकाना होना चाहिए। प्राण जी की पत्नी शुक्ला जी और बेटा सकुशल इंदौर पहुंच गए तो शुक्ला जी ने प्राण साहब को फोन किया, कहा कि बेटे का जन्मदिन मनाने के लिए तो इंदौर आ जाइए ।यह बेटे की पहला जन्मदिन था 11 अगस्त 1947। प्राण साहब ने कहा कि उनका आना मुश्किल होगा बहुत सारे काम है माहौल भी ठीक नहीं है लेकिन शुक्ला जी ने जिद पकड़ ली उन्होंने कहा कि आप नहीं आएंगे तो बच्चे का यह जन्मदिन भी नहीं बनाएंगे। अब प्राण साहब मजबूर हो गए उन्होंने फैसला किया कि वह इंदौर जाएंगे सोचा 1 हफ्ते के लिए इंदौर चलते हैं, बच्चे का जन्मदिन मना कर वापस आ जाएंगे। तो एक हफ्ते की पैकिंग करने के बाद वह निकल गए इंदौर के लिए। 11 अगस्त को बच्चे का जन्मदिन धूमधाम से मनाया । जन्मदिन के दो दिन बाद ही लाहौर सहित उत्तर भारत के बहुत सारे शहरों में दंगे शुरू हो गए खबरें आने लगी कि लाहौर खून में सन गया है और सैकड़ों लोग इन दंगों में अपनी जान गवा चुके हैं, लाहौर में भारी तबाही हुई है। खबरें सुनकर प्राण ने अपने देवता मुरली वाले का स्मरण किया और हाथ जोड़े और कहा कि अगर बीवी इंदौर नहीं बुलाती और इतनी जिद नहीं करती तो वह शायद दंगों के चपेट में आ जाते और शायद जिंदा नहीं होते अपने बीवी और बच्चों को देखने के लिए। तो बीवी की जिद ने प्राण साहब को दिया नया प्राण दान । अब दूसरी बात प्राण साहब मुंबई आए तो साथ में बहुत सारी उमंगे थी बहुत सारे सपने थे जो जल्दी ही टूटने लगे। लाहौर में वह नाम कमा चुके थे वहां उन्होंने 20 फिल्में भी की थी, उन्हें उम्मीद थी कि बंबई में भी वैसा ही होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ प्राण साहब को मुंबई में पहला काम पाने के लिए 8 महीने तक संघर्ष करना पड़ा और यह संघर्ष बहुत कड़ा था। अपनी पत्नी शुक्ला जी और बेटे के साथ प्राण साहब आ गए मुंबई उन्होंने सबसे पहले अपना ठिकाना बनाया होटल ताज गेटवे ऑफ इंडिया ।
इन दिनों होटल ताज में स्वीट का रेट हुआ करता था ₹55 इंक्लूडेड ब्रेकफास्ट एंड लंच डिनर । उस टाइम पर 1947 में यह बहुत बड़ा अमाउंट था वह भी ऐसे आदमी के लिए जिसके पास मुंबई में कोई काम भी नहीं है। प्राण साहब को जल्दी ही बात समझ में आ गई यह ताज का स्वीट बहुत भारी पड़ जाएगा तो कुछ दिन रुकने के बाद इससे आधी कीमत की एक होटल में शिफ्ट कर लिया। दिनभर स्ट्रगल करते हर जगह टका सा जवाब होता कोई काम नहीं है। प्राण साहब के दिन बहुत खराब चल रहे थे उम्मीदें टूटती जा रही थी. होटल बदलना पड़ रहा था ताज से वह पहुंच गए होटल स्टैंट जो कि रेडियो क्लब के पास था फिर उसको चेंज किया वहां से होटल फ्रेडरिक्स होटल आ गए होटल वहां से डेलामार होटल आ गए. डेलामार में वह सबसे ज्यादा वक्त तक रुके 10 महीने तक इस होटल तक आते-आते कंडीशन इतनी खराब हो चुकी थी कि उन्होंने अपने बेटे को इंदौर में उसकी मासी के घर भेज दिया। लेकिन शुक्ला जी उनके साथ मुश्किल के इस दौर में सहारा बनी रहे जो लगातार उन्हें हौसला देती रहती। होटल में रहते हुए प्राण साहब को हर हफ्ते होटल का बिल चुकाना पड़ता था, काम नहीं था और एक दिन हालात ऐसे हो गए कि पैसा भी खत्म हो गया पास का। बिल देना था पर पैसे नहीं थे, अब क्या करें ?? वापस लौटने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, इसी उधेड़बुन में थे, कि शुक्ला जी ने हाथ में से सोने के कंगन उतारे और पति को दिए अपनी पत्नी पर बरस पड़े नहीं यह नहीं होगा मैं तुम्हारे जेवर बेचकर अपने सपने पूरा करूं।
शुक्ला जी ने हाथ में से सोने के कंगन उतारे और पति को दिए अपनी पत्नी पर बरस पड़े नहीं यह नहीं होगा मैं तुम्हारे जेवर बेचकर अपने सपने पूरे नहीं कर सकता, प्राण साहब गुस्सा उस समय अपनी पत्नी पर नहीं अपने आप पर उतार रहे थे, मजबूरी थी वह इतने नाकारा हैं। कि वह अपने परिवार के लिए अपनी पत्नी के गहने बेचने पड़ेंगे। उन्होंने पत्नी से कहा कि हम वापस चले जाएंगे लेकिन तुम्हारे जेवर नहीं बेचेंगे, पत्नी ने समझाया कि यह चीजें ऐसे ही वक्त के लिए होती हैं जेवर ही तो है अब अच्छा वक्त आएगा तो फिर से ले लेंगे इनसे ज्यादा जरूरी मुंबई में रहना है और काम ढूंढना है और काम पाना है। प्राण साहब के बार-बार मना करने पर भी शुक्ला जी उन्हें समझाती रही कि इस तरह हिम्मत नहीं हारते एक चांस और लो शायद कुछ हो जाए जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे।
ऐसे समय में एक्टर श्याम और उनके दोस्त सआदत हसन मंटो ने।उन्होंने प्राण की सिफारिश की।इन्हीं दिनों में जगी आशा की एक किरण प्राण साहब को एक टेलीफोन आया फिल्म मिल गई ।मुंबई टॉकीज की फिल्म जिद्दी ।इस फिल्म के लिए उनको ₹500 महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर रख लिया गया, प्राण साहब ने ₹100 एडवांस में लिए और जाकर बीवी के साथ रात में पार्टी मनाई जब पार्टी करके वापस होटल लौटे तो आप यकीन नहीं मानेंगे, एक फिल्म का और ऑफर आ गया था, जिंदगी ने दरवाजे खोलने शुरू कर दिए किस्मत के प्राण साहब को 4 दिनों के अंदर ही चार फिल्में मिल गई। जो संघर्षों से टूट कर वापस लाहौर जाना चाहते थे, उन्हें अपनी धर्मपत्नी शुक्ला जी ने फिर से नया प्राण दान दिया। उसके बाद प्राण एक ऐसे कलाकार बना गए जो हीरो से ज्यादा पैसे लेते थे। उन्होंने खलनायक की छवि बदली। वे कभी हीरो नहीं बने उनका खाना था की मैं पेड़ की पीछे चक्कर नहीं लगा सकता।
वे विलेन ही बने रहे।वह भी ऐसे की किसी भी अभिभावक ने अपने बच्चे का नाम प्राण नहीं रखा। एक सर्वे भी हुआ लेकिन प्राण मन का कोई बच्चा नहीं मिला।
उन्होंने विलेन के साथ कमेडियन और चरित्र अभिनेता के किरदार बाखूबी निभाए। जिनमे उपकार का मलंग का रोल यादगार रहा।
(साभार मल्टी मीडिया / गूगल )