भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक अनुशासन के सख्त आवरण के बाहर असंतोष का इस तरह बाहर आना भाजपा के लिए अपेक्षाकृत नयी बात है ।भाजपा के चाल चरित्र और चेहरे के कवच को भीतर से बेंध दिया गया है. सवाल पद का नहीं है, क्योंकि सुमित्रा महाजन अब किस पद की मोहताज हो सकती हैं ?जो आठ बार भाजपा की सांसद रही हैं। केंद्रीय मंत्री रही हैं और लोकसभा के अध्यक्ष रह चुकी हैं। उमा भारती भी पूर्व मुख्यमंत्री हैं.सांसद रह चुकी हैं ।केंद्रीय मंत्रिमंडल में रह चुकी हैं ।यही नहीं उनके भतीजे को हाल ही में शिवराज सिंह मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के परिवारवाद के विरोध को चुनौती देता है । रघुनंदन शर्मा का परिचय किसी पद का मोहताज नहीं है।रघुनंदन शर्मा उन चेहरों में से एक हैं, जिन्हें सामने रखकर हिंदूवादी विचारधारा को शोकेस किया जाता रहा है। यही नहीं संघ और भाजपा की राजनीति में उनका चेहरा नीति के एक अटल चिन्ह की तरह स्थापित रहा है ।
सवाल प्रतिष्ठा का है ?
अपने विश्वसनीय और काबिल सेनापतियों से सलाह ना करना, उनका उपयोग नहीं करना और कम से कम सार्वजनिक चुनावी कार्यक्रमों में उन्हें आमंत्रित नहीं करना पार्टी नेतृत्व के अविश्वसनीय दंभ को दिखाता है।भाजपा के भीतर उबल रहा असंतोष अब बाहर की तरफ रिसने लगा है.पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ,पूर्व लोकसभा अध्यक्ष महाजन और राज्यसभा के सदस्य रहे रघुनंदन शर्मा ,इन तीन वरिष्ठ नेताओं ने स्वयं की उपेक्षा को रेखांकित किया है ।इसके पहले कोलारस (शिवपुरी) के भाजपा विधायक वीरेंद्र रघुवंशी कुछ इसी तरह की बात कहकर पार्टी छोड़ चुके हैं ।असंतोष के रिसाव की यह स्थिति भाजपा के लिए गंभीर समस्या है ।उमा भारती का दर्द है कि प्रदेश में जन आशीर्वाद यात्रा में ना तो उन्हें बुलाया गया ना ही उनसे इस बारे में कोई मशवरा किया गया। सुमित्रा जी एक मंच से नेताओं की पार्टी में उपेक्षा की बात करते-करते कह ही बैठीं कि उनमें से एक में भी हूं।रघुनंदन शर्मा कुछ अधिक मुखर और स्पष्ट रहे।एक चैनल से बातचीत में उन्होंने अपना दर्द, पार्टी की आंतरिक स्थिति और संगठन की कमजोरी के बारे में बहुत कुछ कहा ! कौन सा वह गुण है जो पार्टी के भीतर महत्व पाने के लिए नेतृत्व को खुश रख सकता है!यदि असंतोष इस तरह और इस स्तर पर बाहर नहीं आता तो माना जा सकता था कि शिकायत करने वाला नेता पार्टी के भीतर अपने कर्तव्य निर्वहन में कमजोर है या बार-बार पद की इच्छा उसे इस तरह के विद्रोह की तरफ खींच रही है ।ज्योतिरादित्य सिंधिया यदि कांग्रेस को छोड़कर आए तो उनका कारण किसी नैतिकता का प्रश्न नहीं था। पूर्व विधायक , अपेक्स बैंक के पूर्व अध्यक्ष भंवर सिंह शेखावत का इस वक्त पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आ जाना महत्व नहीं मिलने के असंतोष पर टिका हुआ है। वीरेंद्र रघुवंशी का मसला पार्टी के ही उन नेताओं से है जो सिंधिया के साथ भाजपा में आए हैं । ऐसे और भी उदाहरण है और शायद अभी और भी उदाहरण आएंगे !इस मह्त्वपूर्ण बिंदु को पार्टी ने नजरअंदाज किया । इसका कोई समाधान नहीं किया गया ।कांग्रेस से भाजपा में आने का सिलसिला भाजपा के लिए अभूतपूर्व बनने जा रहा है। अब सवाल यह है कि भाजपा से ये दल बदल क्या चुनाव में पार्टी की कमजोर हालत के कारण हो रहे हैं ?
2018 के चुनाव में भी भाजपा की स्थिति कमजोर साबित हुई थी और सत्ता उसके हाथ से चली गई थी. जबकि चुनाव पूर्व के आकलनों में ऐसे गंभीर संकेत नहीं मिले थे । इस बार तो संकेत भी मिल रहे हैं और जहाज छोड़कर जाने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।यह स्थिति तब है जब प्रदेश में चुनाव की कमान केंद्रीय नेतृत्व ने खुद संभाली है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि इस बार प्रदेश में चुनाव जीतने की सामर्थ्य प्रदेश के संगठन में नहीं देखी गई है या मतदाता कुछ अधिक क्रोधित दिख रहे हैं।प्रदेश में प्रचार , उम्मीदवार का चयन और रणनीति बनाने तक के निर्णय केंद्र स्तर पर किए जा रहे हैं । यदि यह सच है कि ऐसा पार्टी की कमजोर स्थिति को देखकर किया जा रहा है , तो पार्टी के भीतर उठ रहे असंतोष को बेहद गंभीर घटना माना जाना चाहिए . यह स्थिति की आवश्यकता है या सामर्थ्य की कमी है या नीति में परिवर्तन जो पुराने नेताओं की नाराजी का कारण बन रहा है ।इस बारे में यह मत रीजनेबल दिखाई देता है कि चुनाव में अपने काम ,छवि और नीतियों से जब जीतने की संभावना नहीं बन रही हो तब ऐसा ही किया जाता है !
एक मत यह भी है कि 2018 में कांग्रेस के लिए भाजपा ने जिस तरह का गड्ढा खोदा था अब वही गड्ढा उसके सामने आ गया है।
सत्ता और संगठन के नेतृत्व को बदलने की चर्चाएं और अटकलें अनेक बार धूल के गुबार की तरह उठीं और बैठ गईं. यह दिखाने की कोशिश हुई कि प्रदेश में नेतृत्व मजबूत है , डिपेंडेबल है और उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ेगी ।शायद इन अनुमानों पर ध्यान दिया जाता तो पार्टी को कुछ लाभ होता। लगता है कि प्रदेश में सत्ता और संगठन के नेतृत्व की सामर्थ्य पर तब उठे सवाल काल्पनिक नहीं थे। नतीजा यह है कि स्थानीय कार्यकर्ता या स्थानीय नेता की तरह प्रदेश के वरिष्ठ नेता प्रचार में जुटे हुए हैं ।इस दशा को भाजपा की संगठनात्मक ताकत माना जाए या उसकी दुर्दशा माना जाए यह सिद्ध करना अब खुद भाजपा की जिम्मेदारी है।
प्रदेश में स्थिति यह है कि कांग्रेस से भाजपा में आए और पद भी हासिल कर चुके नेताओं की कोशिश होती है कि वे मुख्यमंत्री और संगठन नेतृत्व के निकट से निकट नजर आएं ।इस कोशिश में भाजपा के प्रतिबद्ध और कटिबद्ध कार्यकर्ता और नेता दूर से दूर नजर आने लगे हैं ।हालांकि भाजपा में आए सिंधिया को वह सम्मान और दर्ज नहीं मिला जिसके लिए वह कांग्रेस से आए थे।चुनाव प्रचार, चुनाव प्रबंधन और चुनावी नीति चर्चा में पार्टी ने अभी तक सिंधिया को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से नहीं नवाजा है। वे कुछ अलग-थलग से नजर आ रहे हैं।सिंधिया गुट की इस स्थिति का अनुमान मैंने तब भी व्यक्त किया था जब वे भाजपा में आए थे । यह स्पष्ट था कि सरकार बन जाने के बाद भाजपा में उन्हें प्रतिबद्ध नेताओं की तुलना में अधिक महत्व नहीं दिया जा सकेगा । इसके बावजूद भाजपा के पुराने नेताओं , कार्यकर्ताओं के बीच यह असंतोष तब से ही तेजी पकड़ने लगा कि बरसों की उनकी मेहनत और संघर्ष के फल पर बाहर से आए लोग कब्जा कर रहे हैं.
भाजपा में अनुशासन की लोहे की मोटी चादर में छेद हो जाना कोई सामान्य घटना नहीं है राजनीतिक क्षेत्र में इसे न केवल महत्वपूर्ण माना जा रहा है बल्कि यह भी कयास लग रहे हैं कि पार्टी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है ! केंद्रीय स्तर पर प्रांतीय राजनीति से इस तरह से निपटना ज्यादा दिन नहीं चल सकता है। खास बात यह है कि कुछ माह बाद लोकसभा के चुनाव भी होने हैं जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर लगेगी ।यदि प्रदेश में पार्टी की दशा यही बनी रही तो केंद्रीय नेतृत्व की मुश्किलें और बढ़ेंगी।