विनय झैलावत
(पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं वरिष्ठ अधिवक्ता)

‘लॉक-इन क्लॉज’ का प्रभाव कर्मचारियों और नियोक्ताओं, दोनों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। नियोक्ता के दृष्टिकोण से न्यूनतम सेवा क्लॉज प्रभावी कर्मचारी प्रतिधारण के रूप में काम कर सकता है। यह कर्मचारियों की छंटनी को कम कर सकता है, दक्षता में सुधार कर सकता है और कर्मचारी की भर्ती और प्रशिक्षण से जुड़ी लागतों की भरपाई कर सकता है। हालांकि, एक कर्मचारी के दृष्टिकोण से ऐसी न्यूनतम सेवा आवष्यकताएं नौकरी छोड़ने के लचीलेपन को कम करती है। साथ ही ऐसे संगठन में शामिल होने में एक बड़ी बाधा बन सकती है, जहां इस तरह के अनिवार्य कार्यकाल लंबे होते हैं। इसका संभावित रूप से यह भी अर्थ हो सकता है कि अधिक कर्मचारी सेवा अनुबंधों में न्यूनतम सेवा अवधि का विकल्प चुनेंगे।
इसी संबंध में विजया बैंक बनाम प्रशांत बी नारनवारे के मामले में दिया गया एक महत्वपूर्ण फैसला है। इसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के रोजगार अनुबंध में निहित न्यूनतम सेवा खंड की परिवर्तनीयता को बरकरार रखा गया है। यह विवाद प्रशांत को बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक के रूप में चयनित होने पर जारी नियुक्ति पत्र के एक खंड को लेकर था। यह निर्णय रोजगार में क्षतिपूर्ति बांड की प्रवर्तनीयता, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत व्यापार प्रतिबंध के दायरे और धारा 23 के अंतर्गत लोक नीति सिद्धांतों के अनुप्रयोग पर विचार करता है।
प्रशांत बी नारनवारे, 1999 में विजया बैंक में प्रोबेशनरी असिस्टेंट मैनेजर के रूप में शामिल हुए और बाद में पदोन्नत हुए। सन् 2006 में, विजया बैंक ने अधिकारी पदों के लिए एक भर्ती अधिसूचना जारी की, जिसमें क्लॉज 9 (डब्ल्यू) शामिल था, जिसमें चयनित उम्मीदवारों को दो लाख रुपये का क्षतिपूर्ति बांड निष्पादित करने की आवश्यकता थी।
यह राशि तीन साल पूरे करने से पहले सेवा छोड़ने पर देय थी। 7 अगस्त, 2007 (क्लॉज 11 (के)) के प्रतिवादी के नियुक्ति पत्र में इसी तरह की शर्त दोहराई गई थी, जब उन्हें वरिष्ठ प्रबंधक-लागत लेखाकार के रूप में नियुक्त किया गया था। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने और क्षतिपूर्ति बांड को निष्पादित करने पर, नारनवारे ने अपनी पिछली भूमिका से इस्तीफा दे दिया और विजया बैंक में शामिल हो गए। हालांकि, उन्होंने उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर कर धारा 9 (डब्ल्यू) और 11 (के) को असंवैधानिक और अनुबंध अधिनियम की धारा 23 और 27 के विपरीत बताते हुए चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने बीईएमएल लिमिटेड बनाम सत्य नारायण पांडे मामले में दिए गए एक पूर्व निर्णय का हवाला देते हुए धारा 11 (के) को रद्द कर दिया और राशि वापस करने का आदेश दिया। उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के विरूद्ध विजया बैंक ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
अपील स्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को उलट दिया और धारा 11 (के) की प्रवर्तनीयता को बरकरार रखा। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि धारा 11 (के) धारा 27 के तहत व्यापार पर प्रतिबंधक के दायरे में नहीं आता। यह प्रतिबंध केवल रोजगार के बने रहने तक ही लागू रहेगा, इस विशेष मामले में समाप्ति के बाद नहीं। न्यायालय ने कहा कि रोजगार की अवधि के दौरान नकारात्मक अनुबंध आमतौर पर प्रवर्तनीय होते हैं, जब तक कि वे अनुचित या अत्यधिक कठोर न हों। चूंकि यह खंड केवल न्यूनतम कार्यकाल सुनिष्चित करने का प्रयास करता था और भविष्य में रोजगार को प्रतिबंधित नहीं करता था, इसलिए इसे व्यापार पर प्रतिबंध नहीं माना जा सकता था। न्यायालय ने मानक प्रारूप अनुबंधों से जुड़ी चिंताओं को भी स्वीकार किया, जिसमें असमान सौदेबाजी शक्ति का मुद्दा भी शामिल है।
न्यायालय ने रोजगार संबंधों और प्रचलित उद्योग गतिशीलता के संदर्भ में ऐसे खंडों की जांच करने की आवश्यकता पर बल दिया। उदार और प्रतिस्पर्धी माहौल में दुर्लभ विशेषज्ञ प्रतिभाओं को बनाए रखने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए, न्यायालय ने माना कि धारा 11 (के) सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं हे। यह शर्त वैध व्यावसायिक हित को पूरा करती थी तथा कर्मचारी पर कोई असंगत बोझ नहीं डालती थी। न्यायालय ने दो लाख रुपये की निश्चित क्षतिपूर्ति को उचित पाया। प्रतिवादी की वरिष्ठता, नौकरी की आकर्षक प्रकृति और भर्ती प्रक्रिया में शामिल लागतों को ध्यान में रखते हुए, यह खंड उचित ठहराया गया। यह राशि इतनी अधिक नहीं थी कि इस्तीफे के लिए बाधा बने। यह नियोक्ता को समय से पहले नौकरी छूटने से होने वाले वास्तविक नुकसान के समानुपाती थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने बीईएमएल मामले को इस प्रकार अलग किया कि उस मामले में, यह प्रतिबंध भविष्य के रोजगार पर भी लागू था, जबकि खंड 11 (के) केवल रोजगार अवधि के दौरान ही लागू होता था। इसके अतिरिक्त, बीईएमएल मामले में उच्च न्यायालय ने नियोक्ता के वित्तीय और परिचालन घाटे पर विचार नहीं किया, जो वर्तमान मामले में प्रासंगिक थे। यह निर्णय उस न्यायिक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है जो रोजगार संबंधों में संविदात्मक प्रतिबद्धताओं की परिवर्तनीयता का पक्षधर है। खासकर जब वे प्रशासनिक और संस्थागत औचित्य पर आधारित हों। यह न्यायालय द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के नियोक्ताओं द्वारा परिचालन निरंतरता सुनिश्चित करने और कर्मचारियों की संख्या में कमी को रोकने में आने वाली व्यावहारिक चुनौतियों की व्यापक चुनौतियों की व्यापक मान्यता को दर्शाता है।

कानून और न्याय: राज्यपाल क्या न्यायाधीश की तरह काम कर सकते हैं?
यह दृष्टिकोण संविदात्मक स्वतंत्रता और कर्मचारी सुरक्षा के बीच संतुलन के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। धारा 11 (के) को बरकरार रखते हुए, जो एक मानक प्रपत्र शर्त है जिसमें बातचीत की गुंजाइश नहीं है। न्यायालय ने कार्यकाल आधारित सेवा बांडों की परिवर्तनीयता की सीमा को शिथिल कर दिया है। खासकर जहां कर्मचारी उसी संगठन में स्थानांतरित हो रहा हो। इस निर्णय को नियोक्ताओं के लिए निश्चित अवधि के रोजगार दायित्व का मसौदा तैयार करने में उपलब्धता स्वतंत्रता को संभावित रूप से व्यापक बनाने के रूप में भी देखा जा सकता है। बैंकिंग, सूचना प्रौद्योगिकी और विमानन जैसे उच्च गतिशीलता वाले क्षेत्रों में यह चिंता बनी हुई है कि ऐसे खंडों का कठोर प्रवर्तन श्रम बाजार में कर्मचारी की तरलता और प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित कर सकता है, खासकर जब नियोक्ता के लिए वास्तविक लागत सीमांत या अपर्याप्त हो। फिर भी, निर्णय में नियुक्ति या आंतरिक पदोन्नति के स्तर पर कर्मचारियों द्वारा सावधानी बरतने की आवश्यकता की पुनः पुष्टि की गई है।
साथ ही नियोक्ताओं को ऐसे प्रावधानों को तर्कसंगत, परिचालनात्मक औचित्य के साथ समर्थन देने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, जो न्यायिक जांच का सामना कर सकें। यह किसी भी तरह से कर्मचारी की कंपनी छोड़ने के बाद अन्य करियर के अवसरों को तलाषने की स्वतंत्रता में आधा नहीं डालता। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वसूले गए दो लाख रूपये कोई जुर्माना नहीं थे, बल्कि विजया बैंक के लिए क्षतिपूर्ति राषि थी, जिसने उस समय तक मध्य-प्रबंधन कर्मचारी नरवरणे के प्रशिक्षण में निवेष किया था। इससे कर्मचारी को भविष्य में नौकरी करने से नहीं रोका गया और न ही उनकी व्यावसायिक संभावनाओं पर कोई असर पड़ा।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अनुबंध अधिनियम की धारा 27 के प्रयोजनार्थ रोजगार के दौरान और उसके बाद लागू होने वाले प्रतिबंधात्मक अनुबंधों के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। यह प्रतिस्पर्धी बाजार में कुशल कर्मचारियों को बनाए रखने की आवश्यकता वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के संदर्भ में रोजगार अनुबंधों पर सार्वजनिक नीति की अवधारणा को लागू करने का एक सूक्ष्म दृष्टिकोण भी प्रदान करता है। यह निर्णय इस बात पर जोर देता है कि परिनिर्धारित क्षतिपूर्ति की तर्कसंगतता का आकलन नियोक्ता के वास्तविक नुकसान और कर्मचारी की स्थिति एवं परिस्थितियों के आलोक में किया जाना चाहिए। यह निर्णय पूर्व न्यायिक निर्णयों को लागू करते समय प्रत्येक मामले के विशिष्ट तथ्यात्मक ढांचे पर विचार करने के महत्व पर भी प्रकाश डालता है।