मधुकर पवार

आजादी के अमृत काल के इस महत्वपूर्ण वर्ष में मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ के रमेश और श्रीमती शांति परमार,  उमरिया की जोधइया बाई बेगा और जबलपुर के डॉ. मुनीश्वर डावर के लिये खुशियों की सौगात लेकर आया है। परमार दम्पत्ति और जोधइया बाई को आदिवासी कला तथा डॉ. डावर को चिकित्सा सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिये भारत सरकार ने 25 जनवरी 2023 को प्रतिष्ठित पद्मश्री राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय गठबंधन की सरकार ने पिछले कुछ वर्षों से देश के उन लोगों को पद्मश्री पुरस्कार देने की अभिनव शुरुआत की है जिनमें से अनेक पुरस्कृत लोगों को तो यह भी नहीं मालूम कि पद्मश्री पुरस्कार क्या होता है और इसका क्या महत्व है ?  शिक्षा, कला, चिकित्सा, कृषि सहित विभिन्न क्षेत्रों में बिना किसी स्वार्थ के उत्कृष्ट कार्य करने वाले अनेकों नागरिकों को जब यह सम्मान देने की घोषणा होती है तब देशवासियों को उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में पता चलता है। तब वे भी मानते हैं कि ऐसे लोगों को यह सम्मान देने का निर्णय सराहनीय है। इस वर्ष मध्यप्रदेश के जिन चार व्यक्तियों को पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की गई है, जिन्होंने आदिवासी कला और चिकित्सा के क्षेत्र में अनूठी मिसाल कायम की है।

आदिवासी गुड़िया ने दिलाई वैश्विक पहचान 

झाबुआ के श्रीमती शांति और उनके पति श्री रमेश परमार को जब 25 जनवरी की रात में करीब 10 बजे मोबाईल पर पद्मश्री पुरस्कार मिलने की जानकारी प्राप्त हुई तो वे इसे कोई सामान्य पुरस्कार ही समझ रहे थे। लेकिन जब उन्हें बताया गया कि यह पुरस्कार राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जायेगा तो उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ। अब वे बेहद प्रसन्न हैं कि आदिवासी गुड़िया को भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक मान्यता मिल गई है। पुरस्कार की घोषणा के बाद समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ गई है। पद्मश्री पुरस्कार के लिये चयन होने पर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी आभार मानना नहीं भूलते।

श्रीमती शांति परमार ने सन 1993 में उद्यमिता विकास प्रशिक्षण केंद्र में आदिवासी गुड़िया बनाने का छह माह का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। प्रशिक्षण प्राप्त कर गुड़िया बनाने का उद्देश्य केवल आजीविका ही था। उनके पति रमेश परमार ने भी गुड़िया बनाने के काम में हाथ बटाया। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी इसलिए कच्चा माल यानी कपड़ा, रूई, धागा, तार और रंग का किसी तरह इंतजाम कर गुड़िया बनाने लगे। स्थानीय दर्जी से कपड़ों की कतरनों से गुड़ियों की वेशभूषा बनाते थे। गुड़िया लोगों को पसंद आने लगी। स्थानीय और आसपास के बाजारों और मेलों में गुड़िया बेचने लगे। धीरे– धीरे यह गुड़िया उनके परिवार के भरण– पोषण का जरिया बन गई। इन गुड़िया में आदिवासी समाज की झलक देखने को मिलती है। गुड़ियों के सिर पर बांस की टोकरी, गठरी, लकड़ियां रखते हैं जिससे स्थानीय परिवेश, कामकाज आदि प्रदर्शित होता है। इसके अलावा आदिवासी पारंपरिक हथियार तीर-कमान, फालिया,  हंसिया, गोफन भी गुड़ियों के साथ रखते हैं।

सन 1997 में झाबुआ जिला प्रशासन ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आदिवासी गुड़िया की कला को आम जन तक पहुंचाने में योगदान देने के लिये श्रीमती शांति परमार को सम्मानित किया। इस सम्मान के बाद परमार दम्पत्ति का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने आदिवासी गुड़िया को पारम्परिक और आधुनिक परिवेश में बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने अन्य महिलाओं को भी गुड़िया बनाने के लिये प्रेरित किया। वे अब तक 500 से अधिक महिलाओं को प्रशिक्षित कर चुके हैं। उन्होंने आसपास की 20 महिलाओं को भी गुड़िया बनाने के लिये रोजगार उपलब्ध कराया है। एक महिला अपने घर का काम करने के बाद एक दिन में पांच जोड़ी गुड़िया बना लेती हैं। एक जोड़ी गुड़िया बनाने का मेहनताना एक सौ रूपये देते हैं। परमार दम्पत्ति इंदौर, उज्जैन. भोपाल के अलावा दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद आदि महानगरों में भी आयोजित हस्तशिल्प मेलों में नियमित रूप से भाग लेकर आदिवासी गुड़िया और पारम्परिक आदिवासी हथियार प्रदर्शित कर विक्रय करते हैं। वे भोपाल में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय वन मेला और उज्जैन में आयोजित कालिदास समारोह में भी लगातार भाग ले रहे हैं।

जोधइया बाई ने 67 वर्ष की आयु में सीखी

चित्रकला

 

उमरिया जिला मुख्यालय से करीब 11 किलोमीटर दूर ग्राम लोढ़ा की 83 वर्षीय जोधइया बाई ने 67 वर्ष की आयु में बैगा चित्रकला सीखना शुरू किया। करीब 17-18 वर्षों की अथक मेहनत और लगन से की गई चित्रकारी का सुफल पद्मश्री सम्मान के रूप में मिला। बेहद ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली जोधइया बाई 83 वर्ष की आयु में भी हर दिन जनगण तस्वीर खाना (आशीष आर्ट गैलरी) में तीन – चार घंटे चित्र बनाती हैं। जोधइया बाई को चित्र बनाने के लिये प्रसिद्ध चित्रकार आशीष स्वामी ने प्रेरित किया था। ( श्री आशीष स्वामी ने कला निकेतन, कोलकाता से कला की पढ़ाई की। सन 2021 में कोरोना से उनका स्वर्गवास हो गया )  ।

सन 2008 में स्वर्गीय स्वामी ने जब 67 वर्ष की जोधइया बाई को बकरी चराते, खेतों में मजदूरी करते और जंगल से जलाऊ लकड़ी लाकर बेचकर जीवन यापन करते देखा तो उन्होने उनसे लकड़ी खरीदना शुरू किया। इसी दौरान जब वे चित्र बनाते तो जोधइया बाई बड़े ध्यान से चित्रकारी करते हुये देखती। स्वर्गीय स्वामी ने उन्हें भी चित्र बनाने के लिये प्रेरित किया. प्रारम्भ में जोधइया बाई ने मिट्टी, दीवाल, लकड़ी, लौकी, तुरई आदि पर चित्र बनाये। बाद में ड्राईंग सीट और केनवास पर चित्र बनाने लगी। उनके द्वारा बनाये गए चित्र मध्यप्रदेश के साथ अन्य राज्यों में राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शनियों में प्रदर्शित किये जाने लगे। इसके अलावा इटली, फ्रांस और आस्ट्रेलिया में भी जोधइया बाई के चित्रों की प्रदर्शनी लग चुकी है। वे शांति निकेतन विश्व भारती विश्वविद्यालय,  राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, आदिरंग आदि के कार्यक्रमों में भी सम्मिलित हुई हैं। जनजातीय कला के लिए उन्हें अनेक पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं। पिछले वर्ष ही उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया। भोपाल स्थित जनजातीय संग्रहालय में जोधइया बाई के नाम से एक स्थायी दीवार बनाई गई है जिस पर उनके बनाए चित्र प्रदर्शित किये गये हैं।

जोधइया बाई के चित्रों में आदिवासी जीवन का जीवंत चित्रांकन होता है। जनगण तस्वीर खाना के वर्तमान संचालक श्री निमिश स्वामी ने बताया कि जोधइया बाई की पेंटिंग के विषयों में भारतीय पंरपरा में देवलोक की परिकल्पना, भगवान शिव और बाघ पर आधारित चित्र प्रमुख हैं। इसमें पर्यावरण संरक्षण और वन्य जीव के महत्व को दिखाया है। जोधइया बाई बताती हैं कि उन्होने बचपन में जंगल में बाघ को काफी करीब से देखा है। बाघ से उन्हें डर नहीं लगता और यही वजह है कि उनके चित्रों में बाघ को विशेष स्थान दिया गया है।

सन 1939 में जन्मी जोधइया बाई का विवाह करीब 14 साल की उम्र में ही हो गया था। पति की 40 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाने के बाद दो बेटों और एक बेटी के लालन- पालन की जिम्मेदारी उन पर ही आ गई। वे मजदूरी कर बच्चों का लालन-पालन करने लगी। आज जोधइया बाई नाती– पोतों वाली हैं लेकिन इस उम्र में भी अपना काम स्वयं करती हैं। हर साल महुआ के मौसम में महुआ बीनती हैं और महुआ के लड्डू, आचार आदि बनाती है। जंगल से जलाऊ लकड़ी लाती हैं। पद्मश्री सम्मान मिलने की जानकारी मिलने पर उत्साहित जोधइया बाई ने इसका पूरा श्रेय उनके गुरू स्वर्गीय आशीष स्वामी को देते हुये यह सम्मान गुरु को ही समर्पित किया है।

चिकित्सा सेवा का सम्मान है पद्मश्री

वर्तमान समय में यदि कोई चिकित्सक मरीजों का इलाज करने की फीस मात्र 20 लेता है तो शायद ही कोई विश्वास करेगा। लेकिन यह सत्य है। जबलपुर के 77 वर्षीय चिकित्सक डॉ. मुनीश्वर चंद डावर अभी भी मात्र 20 रुपये फीस लेते हैं और उनका फीस बढ़ाने का कोई इरादा भी नहीं है। करीब 50 वर्षों से मामूली फीस लेकर इलाज करने वाले चिकित्सक डॉ. डावर को उनकी दीर्घ चिकित्सा सेवा के लिये भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान प्रदान करने की घोषणा की है। डॉ. डावर आज भी चिकित्सा सेवा समर्पण भाव से कर रहे हैं और प्रतिदिन 40-50 मरीजों का इलाज करते हैं।

पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के मांड गुमरी में 16 जनवरी 1946 को जन्मे डॉ. डावर का परिवार विभाजन के समय जालंधर आ गया। वहां पर हायर सेकेंड्री की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 1965 में “जबलपुर चिकित्सा महाविद्यालय” में प्रवेश लिया। उन्होने एम.बी.बी.एस. की उपाधि के पश्चात 1970 में सेना के आर्मी मेडिकल कोर में सेवा प्रारम्भ की। सन 1971 के भारत – पाकिस्तान युद्ध के दौरान उन्हें बांग्लादेश में पदस्थ किया गया तथा वहां पूरी मुस्तैदी से सेवायें प्रदान की।  लेकिन स्वास्थ्य कारणों से 1972 में मात्र करीब दो वर्ष की सेना की चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर जबलपुर आ गये। सेना में सेवा की कम अवधि होने के कारण डॉ. डावर पेंशन के पात्र नहीं थे यानी उन्हें पेंशन भी नहीं मिलती है।

डॉ. डावर ने जबलपुर में 10 नवम्बर 1972 को निजी प्रैक्टिस शुरू की। उन्होने बताया कि मैंने फीस मात्र 2 रूपये निर्धारित की थी। मुझे फीस कम लेने की प्रेरणा अपने शिक्षक तुलसीराम से मिली थी। उन्होने कहा था – “चिकित्सक का काम मरीजों की सेवा करना है। उन्हें कभी भी फीस को लेकर परेशान मत करना।” मैंने उन्हीं की प्रेरणा से फीस कम रखी। उन्होंने बताया कि 1986 से 1997 तक फीस तीन रुपये थी । 1997  से 2012 तक 5 रुपए और 2012  से 2020 तक मात्र 10 रूपये फीस लेता था। नवम्बर 2020 में फीस 10 रुपए से बढ़ाकर 20 रुपए कर दी। उन्होने बताया कि इलाज के लिये सभी वर्ग के मरीज आते हैं। कुछ बेहद गरीब भी होते हैं जिनसे फीस नहीं लेता और जांच की जरूरत होती है तो उन्हें मेडिकल कॉलेज जाकर जांच करवाने की सलाह देता हूँ।  डॉ. डावर ने बताया कि मेरा एक पुत्र भी चिकित्सक है और वह जबलपुर में ही निजी प्रैक्टिस कर रहा है। एक बेटी पुणे में है। उन्होने कहा कि मेरा पूरा जीवन मरीजों की सेवा के लिये समर्पित है। उनका मूल मंत्र है “निरंतर सेवा भाव से, फल की चिंता किये बिना काम करते रहना चाहिए।“ डॉ. डावर ने कहा कि मेरी चिकित्सा सेवा का सुफल पद्मश्री पुरस्कार के रूप में प्राप्त हुआ है। इसके लिये वे सभी शुभचिंतकों के शुक्रगुजार हैं। उनका मानना है कि केंद्र सरकार ने पद्मश्री पुरस्कारों के मापदण्ड में परिवर्तन कर उन लोगों का चयन किया है जो कभी भी यह पुरस्कार प्राप्त करने का सपने में भी नहीं सोच सकते थे। सरकार की यह सराहनीय पहल है।।